8 किलोमीटर सड़क के लिए वनोपज बेचकर जुटाए 1200 रुपये प्रति घर, जेसीबी से खुद शुरू किया सड़क निर्माण कार्य
बीजापुर - जहां एक ओर छत्तीसगढ़ सरकार पूरे प्रदेश में सुशासन तिहार का ढोल पीट रही है, वहीं बीजापुर जिले के एक छोटे से आदिवासी गांव सूराखाड़ा में सरकारी उदासीनता की तस्वीर सामने आई है। यह वही गांव है जहां न तो अब तक पक्की सड़क पहुंच पाई है, न ही किसी जनप्रतिनिधि की संवेदना। वर्षों से बार-बार आवेदन देने के बावजूद जब सरकार और प्रशासन ने सिर्फ बहाने बनाए, तब गांव वालों ने अपने वनोपज बेचकर चंदा इकट्ठा कर, जेसीबी मंगवाकर खुद ही सड़क बनाना शुरू कर दिया।
यह घटना भैरमगढ़ ब्लॉक की ग्राम पंचायत केशकुतुल के अंतर्गत आने वाले सूराखाड़ा गांव की है, जहां के करीब 66 परिवार और 300 लोगों की आबादी को आजादी के 77 साल बाद भी पक्की सड़क की सुविधा नसीब नहीं हुई। हालात इतने बदतर हैं कि गांव तक एंबुलेंस नहीं पहुंच पाती। बीमारों को खाट में लादकर लाना पड़ता है।
प्रशासन, पूर्व विधायक और वर्तमान विधायक – क्यों बने ग्रामीण पीड़ा के भागीदार?
सूराखाड़ा गांव की कहानी किसी एक दिन की नहीं, बल्कि दशकों से उपेक्षा की शिकार एक पीढ़ी की गाथा है। सन्नी राम वेको (मुखिया) ने बताया कि उन्होंने कांग्रेस और भाजपा दोनों ही सरकारों के कार्यकाल में बार-बार आवेदन दिया। चाहे पंचायत हो, जनप्रतिनिधि हों या जिला प्रशासन, फिर भी हर बार उन्हें सिर्फ देखेंगे, भेजेंगे, विचाराधीन है जैसे शब्दों का आश्वासन मिला।
सबसे हैरानी की बात यह है कि गांव से महज 8 किलोमीटर दूर पूर्व विधायक और वर्तमान विधायक दोनों का निवास है। फिर भी ग्रामीणों की आवाज उनके कानों तक कभी नहीं पहुंची। क्या यह लोकतंत्र में नागरिकों के साथ किया गया सबसे बड़ा धोखा नहीं है?
प्रशासन ने मनरेगा की शरण ली, लेकिन जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया
मनरेगा के तहत पहाड़ी और पथरीले इलाकों में जेसीबी से काम की इजाजत नहीं है, इसलिए सड़क की मांग को स्वीकृति नहीं मिल सकी। यानी सरकारी प्रक्रियाओं की आड़ में एक बार फिर आम नागरिक की जरूरत को दरकिनार कर दिया गया। अब मौका निरीक्षण की बात कहकर प्रशासन फिर से वही पुराना ‘प्रक्रियाधीन’ खेल खेल रहा है।
आखिर क्यों अपनी जरूरतों की कीमत खुद चुका रहे हैं ग्रामीण?
ग्रामीणों ने टोरा, महुआ, इमली और आंवला जैसे वनोपज बेचकर हर घर से 1200 रुपये का चंदा इकट्ठा किया और सड़क निर्माण का कार्य शुरू कर दिया। आठ किलोमीटर लंबी इस सड़क पर चार किलोमीटर में अब सिर्फ सड़क नहीं बना रहे, बल्कि यह उन सपनों की नींव है जो सालों से विकास की बाट जोह रहे थे।
इस गांव तक कोई पक्की सड़क नहीं है। एंबुलेंस नहीं पहुंचती। बारिश में राशन और जरूरी सामान की आपूर्ति ठप हो जाती है। बीमार व्यक्ति को खाट पर लादकर 3–4 किलोमीटर तक पैदल ले जाना पड़ता है। ऐसे हालातों में क्या सुशासन तिहार मनाना व्यवस्था की संवेदनहीनता का उत्सव नहीं बन जाता?
कागजों में 'अमृतकाल', जमीन पर 'संघर्षकाल'
गांव के प्रतिनिधियों ने 9 दिसंबर 2024 को कलेक्टर जनदर्शन, 14 जनवरी 2025 को अनुविभागीय अधिकारी (राजस्व) जनदर्शन भैरमगढ़ और वनों से गुजरने वाले मार्ग को लेकर 10 मार्च 2025 को सामान्य वनमंडल कार्यालय को सड़क, पुलिया निर्माण एवं नक्शा- खसरा उपलब्ध कराने के लिए आवेदन दिए थे। लेकिन तीनों ही स्तर पर आज तक कोई कार्यवाही नहीं की गई।
ऐसा लगता है कि सरकार सिर्फ सुशासन के पोस्टर और जश्न में व्यस्त है, जबकि जमीन पर लोग अपनी पीठ से देश का बोझ ढोने को मजबूर हैं।
जनप्रतिनिधियों की चुप्पी या मिलीभगत?
जब ‘सुशासन तिहार’ के नाम पर करोड़ों रुपये के पोस्टर-बैनर और समारोह आयोजित हो रहे हों, उस वक्त एक गाँव अगर खुद से सड़क बना रहा है तो यह उस तंत्र के लिए तमाचा है जो जनभागीदारी के नाम पर सिर्फ कागजी पहाड़ खड़े करता है।
सूराखाड़ा गांव का यह उदाहरण सिर्फ बीजापुर नहीं, पूरे प्रदेश और देश के लिए एक सबक है अगर योजनाएं जमीन पर नहीं उतरतीं, अगर तंत्र सिर्फ आंकड़ों और नियमों की दुहाई देता रहे, तो एक दिन जनता खुद ही प्रशासन को दरकिनार कर देगी। उस दिन 'सुशासन' की परिभाषा बदल जाएगी।
इसलिए सवाल सिर्फ सूराखाड़ा की सड़क का नहीं है सवाल है कि क्या सरकारें अब भी जागेंगी, या जनता को हर बार खुद अपना रास्ता बनाना पड़ेगा?





